दर्पण / कुँवर दिनेश
दर्पण क्या समझेगा
तुम्हारे मन की इच्छा,
यह तो वही दिखाएगा
जो कि तुम हो...
इसे परवाह नहीं तुम स्वयम् को
किस रूप में देखना चाहते हो,
तुम कैसा दिखना चाहते हो...
तुम्हारी चाह
यथार्थ से बढ़कर तो है नहीं;
अब जो जैसा है
वैसा ही तो दिखेगा...
दर्पण को कोसो मत,
दर्पण पर बिगड़ो मत,
यह बिगड़ गया अगर
तो तुम्हें तुम्हारा चेहरा
कौन दिखाएगा?
पता चलेगा जब
पानी में मुंह देखना पड़ेगा...
अभी जो बनते-संवरते हो,
चौखटे को थोड़ा सजा पाते हो,
वह भी न हो सकेगा;
फिर से जानवर सदृश हो जाओगे...
दर्पण ही तो
तुम्हें इन्सान बनाता है,
बार-बार तुम को
तुम्हारी सूरत दिखाता है,
ताकि जो कोई मैल जमी हो
उसे तुम मिटा सको...
अपने चेहरे को तुम
यदि कल्चर्ड नहीं
तो कम-अज़-कम
सिविलाइज़्ड तो बना सको...