दर्शक-दीर्घा में अकेली तालियां बजाती हुई लड़की / शहंशाह आलम
भरसक बहुत दूर नहीं गई होगी
तितली की तरह उड़ती हुई
चिडि़या की तरह फुदकती हुई
वह लड़की
बस अगले ही चौक अगले ही मोड़ तक
पहुंच पाई होगी और
झुकी हुई कमर वाली बुढि़या को
सड़क पार करा रही होगी
कुछ नए शब्द
कुछ नए वाक्य
कुछ नए मुहावरे
गढ़ रही होगी प्रफुल्लित
यह सब असंभव नहीं था उसके लिए
चले जाते हैं जब सारे दर्शक और श्रोता
और प्रेमी जोड़े और हत्यारे
उठकर अपने-अपने घरों में
शिलाओं के पीछे
अंधेरी छायाओं में
दर्शक-दीर्घा में अकेली बैठी हुई लड़की
जीवन को बीज को जंगल को
पृथ्वी-ब्रह्मांड को गा रहे
कवियों की कविताओं पर
तालियां बजाती है
वाह-वाह करती है
लड़की पहाड़ के कंधे पर
घने जंगलों में
पतंग के रंगों में
भोर के उजास में
कश्ती पर समुद्र-स्मरण करती हुई
बीजों फलों पत्तियों
और झींसियों के बीच
नटों के यहां
खूबसूरत बाघों के बीच
हमारे द्वारा देखे जा रहे महास्वप्नों में
रहती है मौजूद
अपने पूरे वजूद के साथ
आरा मशीन में जब लकड़ी को
ग़लत चीरा जाता है
बढ़ई जब लकड़ी को
ग़लत आकार देते हैं
ऐसा करने से रोकती है लड़की
वह जानती है पेड़ों के न होने का अर्थ
वह जानती है पेड़ों का न होना
इस पूरी दुनिया का न होना है
लड़की गेहूं और चावल और चीनी के बोरों को
ठेलों रिक्शों बैलगाडि़यों पर
लादने में मदद करती है अपने पिता की
एक भी दाने को
नीचे गिरने नहीं देती है
जहां हीला-हवाला और हंगामे होते हैं
जहां चूल्हे जलते हैं
जहां महान अभिनय होते हैं
जहां शांति-वार्ता चल रही होती है युद्धों के बीच
जहां अच्छे दिनों को
चिडि़यों के घोंसलों को
जीवन और सभ्यता को और भाषा को
बचाया जा रहा होता है
लड़की होती है वहीं आस पास बिलकुल सक्रिय
मैं काव्यपाठ से लौटता तो
वह मेरे शब्दों को अपने शब्द
मेरे उत्सव को अपना उत्सव
मेरे उल्लास को अपना उल्लास बनाती
मेरी गति को अपनी गति
मेरी लय को अपनी लय
मैं काम पर से लौटता
उस समय सांझ होती एकदम से
या मेरे किराए के मकान के पिछवाड़े वाले पेड़ों पर
रात आने की प्रक्रिया चल रही होती
लड़की सहला रही होती है मेरी सायकिल को
किसी झबरे कुत्ते की तरह
वह चकित करती अपने अभिनय से
इस कालखंड को
कई निरर्थक चीज़ों को सार्थक कर लेती
अपने हुनर से
साध लेती अपने भीतर के सन्नाटे को
अपने बर्बर और कठिन दिनों को
वह क्षण में कैटरीना कैफ़ बन जाती है
क्षण में सानिया मिर्जा
क्षण में नदी बन जाती है बहती हुई निरंतर
जैसे मुझे पसंद नहीं थीं बिपाशा मल्लिका
रिया सेन अथवा राखी सावंत अथवा नेहा धूपिया
वैसे ही उसे भी पसंद नहीं थीं
न इनकी देह के अंधेरे-उजाले पसंद थे उसे
‘उठाओ और ज़ोर लगाओ’
वह कुलियों को उकसाती है
लतीफ़ चाचा के चश्मे को
खोज कर देती है
अपने दुखों को बिसूरने का
यही एक तरीक़ा था उसके पास
लड़की मुहल्ले के हरी घास वाले मैदान में
टहलते हुए क्षितिज को पुकारते हुए
किवाड़ के पीछे छिपकर
बंजर ज़मीन को जोतते हुए
अपनी नयकी भउजी के संग
हंसी-ठिठोली करती है करोड़ों-करोड़ बार
जैसे बीज अंकुरता है धीरे-धीरे
लड़की भी ख़रामां-ख़रामां और बेख़ौफ
कहां-से-कहां चली जाती है
सोमजी अथवा बरनवाल जी के यहां
‘मछलीघर’ की रंग-बिरंगी मछलियों को
ख़ूब ग़ौर से देखती है
फिर खो जाती है कहीं
अपने किसी शून्य
अपने किसी बुरे समय
अपनी ही किसी दुष्ट छाया में
लड़की ज़रा-सी खिड़की खोलकर
ज़रा-सा सर बाहर निकालकर
हवा और बारिश पर
उड़ रहे महापक्षियों पर
दीवार पर पैफली हुई अनंत धूप पर
बच्चों के सपने में उतर रहीं उड़नतश्तरियों पर
इनके और उनके पोर्टिको में दौड़ रहे
रोबोट कुत्ते और रोबोट आदमियों पर
रखती है नज़र किसी ‘कैटवोमेन’ की मानिंद
लड़की नाचती है आदिवासी उत्सवों में बिंदास
लड़की अपने शतरूपों में नहाती है पानी के कुण्ड में
कह देती है कि दुनिया के सारे नदीतट
उसी के लिए बने हैं
लड़की बचाना चाहती है इन करोड़ों-करोड़ बरस से
जीवित पृथ्वी को घाटियों को नदियों को जंगलों को
पहाड़ों को और शहद के छत्तों को
लड़की देखना चाहती है
दिल्ली को दिल्ली की तरह
मुंबई को मुंबई की तरह
गुजरात को गुजरात की तरह
अयोध्या को अयोध्या की तरह
और असम को असम की तरह
लड़की ख़त्म कर देना चाहती है
बुरे ग्रहों को
फुसफुसाहटों को
विपत्तियों को
लड़की लाल फ्रॉक और स्कर्ट-टॉप में
अटके ख़राब समय
या अपने भीतर-बाहर
या अपने आजू-बाजू के
सब सन्नाटे सब अंधेरे सब बुरे तमाशे
फेंक आती है उस सबसे पुराने बरगद के पास वाले
सबसे पुराने कुएं की अनंत गहराइयों में
लड़की हमेशा मुहल्ले के बनिए के यहां
मिल जाती है कभी नमक-तेल
कभी चावल-दाल ख़रीदते हुए
लड़की इस बाज़ार चढ़े दिनों में भी
जब बनिए के यहां बहुत-बहुत चीज़ें
ख़रीदती हुई नज़र आती है
तब मैं समझता हूं कि एकदम क़रीब है
कोई महापर्व कोई महोत्सव
या कोई महाआयोजन
अब जबकि लड़की इस सावन-भादों के दिनों में
ब्लाउज़ और साड़ी में नज़र आने लगी है
जैसे कि ब्लाउज़ और साड़ी में
नज़र आती है कोई नई बढ़ी हुई लड़की
मैं नहीं समझ पाता उस अगीत को
जो कि गाया जा रहा होता है
जो कि बड़बड़ाया जा रहा होता है
उस साड़ी के इर्द-गिर्द
उस झुटपुटे में
उस एकांत के एकांत में
मैं नहीं समझ पाता
समय के अपहरणकर्ता-बलात्कारी
क्यों शामिल हो रहे हैं गिद्ध-भोज में
लड़की के घर लौटने वाले रास्तों में
क्यों खड़े किए जा रहे हैं अवरोध उनके द्वारा
आप समझदार जन ज़रूर समझते होंगे
उनकी विधियां और भाषाएं और योजनाएं
लड़की फिर भी लौटती है घर
जो समय है और जो है समय का फेरा
सबको लांघती हुई लड़की लौटती है घर
और बदलती है समय को समय में
पानी को पानी में
रंग को रंग में
सुंदरता को सुंदर में
और जीवन को जीवन में।