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दर्शन / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
मन, दर्शन करने से बंधन में बँध जाता है !
- यह दर्शन सपनों में भी कर
- देता सोये उर को चंचल,
- लखकर शीशे-सी नव आभा
- आँखें पड़ती हैं फिसल-फिसल,
नयनों का घूँघट गिर जाता, मन भर आता है !
- यह दर्शन केवल क्षण भर का
- बिखरा देता भोली शबनम,
- बन जाता है त्योहार सजल
- पीड़ामय सिसकी का मातम,
इसका वेग प्रखर आँधी से होड़ लगाता है !
- यह दर्शन उज्वल स्मृति में ही
- देता अंतर के तार हिला,
- नीरस जीवन के उपवन में
- देता है अनगिन फूल खिला,
इसका कंपन मीठा-मीठा गीत सुनाता है !
- यह दर्शन प्रतिदिन-प्रतिक्षण का
- लगता न कभी उर को भारी,
- दिन में सोने, निशि में चांदी
- की सजती रहती फुलवारी,
यह नयनों का जीवन सार्थक पूर्ण बनाता है ।
- यह दर्शन मूक लकीरों का
- बरसा देता सावन के घन,
- गहरे काले तम के पट पर
- खिँच जाती बिजली की तड़पन,
इसका आना उर-घाटी में ज्योति जगाता है !