प्रकृति मनुष्य भाषा, गहरा संवेदना में समता
सामाजिक आत्मीयता, दलित साहित्य में है ढलता
आनन्द व रसास्वादन का, मधुमास को लिये भी
मानवीय पक्ष मनुष्यता के, पथ पे है सदा बढ़ता
संघर्ष और विद्रोह की, मशाल यूं जलती रहे
वर्ण विभेद जातिय, कूटनीतियां मिटती रहे
उत्पीड़न की आग में, समानता का ध्वज रहे
यथार्थ के समक्ष सभी, अभिव्यक्तियां प्रबल रहें
अभिव्यक्तियां प्रवाह सी, जीवन्त लगातार हों
आक्रामक इतनी हों कि, अस्मिता के साथ हों
विषमता की वर्षा में, संघर्षों की ज्वाला जले
समान भाव में संग में सदा, कारवां के साथ हो
समाज में समता, हर व्यक्ति में स्थापित रहे
आंतरिक अनुभूति की, गहन वेदना लिखती रहे
हीनता पे श्रेष्ठता, दासता पे स्थापित करे
नारकीय हालात पे, बौद्धिकता प्रमाणित रहे
दलित दमन शब्दों के, मानदण्ड माप सकते नहीं
दृष्टिहीन यथार्थ इति की, गहराई नाप सकते नहीं
बूंद अपनी नाप से कभी, सागर भांप सकता नहीं
कोई दलित अस्मिता की, परछाई मिटा सकता नहीं
प्रेम व भाईचारे का, स्वायत्त जगत विद्यमान रहे
लक्ष्य करुणा से सदैव, मानवता का बसन्त खिले
निजता शून्य समाज, चंहके मन की गलियों में
द्वन्द्व न अंतर बाह्य रहे, सम रस धार अनन्त बहे
सभ्यता संस्कृति, एतिहासिक गौरव गाथा की
इत का नव निर्माण करें, पुरखों की अभिलाषा की
तत्व ज्ञान चिंतन दर्शन, वैज्ञानिक उपलब्धि को
ऊंच नीच का भेद मिटाकर, नवलाली की आशा की
सब आंच चेतना पे तपकर, परम्परा को तोड़ चले
अभ्यस्त समता सैर डगर, दुष्चक्रों को तोड़ चले
प्रतिबिम्ब बनकर उभरे, मुस्कानों में तानों की
भेद सुगन्ध बिन फूल खिले, गहनों मंे बालाओं की