दलिदर / कुमार वीरेन्द्र
माँ घर-घर
घुस, पीट-पीट सूप, आगे-आगे
भगा रही दलिदर, और दलिदर, माँ के पीछे-पीछे, चल रहा
छिपे-छिपे, माँ ज़ोर ज़ोर से, पीट, पीट रही सूप, बीतती रात
सोया ही होगा दलिदर, दिखा रही दीया, भागे
इस रास्ते, दुआर से, भागे पिछवाड़े
खिड़की से सरपट
माँ सुकून में
भगा रही दलिदर, दलिदर सुकून में
कि देख न पा रही, बुढ़िया उसे, चिढ़ा रहा मुँह दलिदर, चढ़ते जाड़ा
एक हाथ में दीया-सूप, एक हाथ से पीट रही माँ कँपकँपा रही, सब
बहू-बेटे, सोए ऐन-चैन से, रजाई में गरमाए, देख कौन रहा
माँ भगा रही, घर-घर दलिदर, और दलिदर
माँ को ‘बुढ़िया’ कह रहा
और वह सुन न पा रही
जीभ बिरा रहा, देख न पा रही, देख रहा मैं, और मुझे भी
चकमा दे रहा दलिदर, मैं जब कहना चाह रहा, माँ आगे नहीं पीछे, कि चूल्हे में जा छिपा
और कहने को हुआ, चूल्हे में है, तसला-पतुकी में घुस लुका बैठा, उसकी यह छल-छलाँग
कहने ही जा रहा, कि दीवाल पर छिपकली की तरह, चढ़ गया ढेर ऊपर, छड़ी
से माँ को चाह रहा बताना, फुर्र से पखेरू-सा, उड़ छप्पर पर बैठ
हिलाने लगा मुंडी-चोंच, ओह, यह कैसी विडम्बना
कि देख रहा मैं दलिदर, और
भगा रही माँ
और वह भी, पीट-पीट सूप
अरे जब घर में रो रहा बच्चा, जाग नहीं रहे माँ-बाप, वे भी
तुम्हारा कर रहे इंतज़ार, सिर्फ़ तुम्हारे भगाने से, कैसे भागेगा, माँ, दलिदर, माँ दलिदर भगाते
भगाते-भगाते, घर-बाहर डीह में चली गई है, चली गई है माँ, तो घर-घर, जाने कब घुस, दौड़
लगाने लगा दलिदर, मैं दलिदरबत्ती ले, घर-घर घुस देख रहा ख़ाली, सूना तसला
ढनक रहा, नहीं बची रोटी, कहीं माँ भूखी तो नहीं, पतुकी में आटा
नहीं, बखार-घर में, एक-दो बोरे भरे, खलियाय फेंके
कोने में, यानी बोने का अन्न भी
अब खा रहे सब
भरसक बोआई को
अकेले क़र्ज़दार हो रहा छोटा भाई, और उसका बच्चा
जब मतारी को दूध ही नहीं, रोएगा नहीं, सोचते कि खोजते, निकला आँगन में, देख
रहा चारों तरफ़, लग रहा हिल रहा, शून्य में घर, अब गिरा कि तब, कोई सहारा ढूँढ़ने
को, लड़खड़ाता बेचैन, कि किसी ने दोनों कान, कर दिए सुन्न, बैठ गया
पकड़े, गहन कूप अँधेरा, दिख न रहा कोई, फिर मारा
किसने ? तब तक सुन रहा, कोई हँस
रहा, लेकिन कहाँ ?
ओह ! यह तो
मेरे भीतर, हँस रहा दलिदर
दौड़ पड़ा घर बाहर, चिल्ला रहा, मत पीटो सूप, माँ
मत पीटो, पर वह कहाँ सुन रही, खड़े-खड़े देखता
ताकता रहा कि माँ, नहीं भगा रही दलिदर
दलिदर भरमा रहा, भरमा
रहा, माँ को !