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दहेज-दानव / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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क्रूर आज बनकर मानव ने मानवता को किया विकल।
इस दहेज के दानव ने सारे समाज को दिया कुचल।।
जिस गृहस्थ-आश्रम की गरिमा को वेदों ने गाया है,
संयम, नियम, साधना का सन्मार्ग जिसे बतलाया है,
उस पावन थल को दहेज ने बना दिया है वधशाला,
होली सब आदर्शों की घर-घर में आज रही है जल।
इस दहेज के दानव ने सारे समाज को दिया है कुचल।।

जहाँ समादर पाती नारी जाति परम कल्याणी है,
स्वर्ग वहीं पर बसता है, यह ऋषि-मुनिया की वाणी है,
सावित्री-सीता बन कजसने कठिन प्रतिज्ञा पाली है,
बलशाली वीरों को जो निज गोद खिलाने वाली है,
टूट चुके उस नारी के हैं आज सुनहरे स्वप्न सकल।
इस दहेज के दानव ने सारे समाज को दिया है कुचल।।

जब अबोध बाला पग अपने यौवन-पथ पर रखती है,
भार समझ निज को मन ही मन घूँट विषैले चखती है,
निर्धन मात-पिता के रहने लगते नित्य नयन गीले,
कैसे होंगे हाथ हमारी प्यारी बिटिया के पीले,
तन-मन को दिन-रात जलाती चिंता की यह आग प्रबल।
इस दहेज के दानव ने सारे समाज को दिया है कुचल।।

लगती रोज़ नुमाइश बेटों की खुल कर लगती बोली,
लूट मचाती घूम रही पापी बटमारों की टोली,
कब उसने आँसू के अंतर्मन में झाँका जाता है,
मूल्य वधू का केवल कुछ सिक्कों से आँका जाता है,
कब किसकी दयनीय दशा पर पाते हैं पाषाण पिघल।
इस दहेज के दानव ने सारे समाज को दिया है कुचल।।

किसी तरह निष्ठुर समाज में कुल की लाज बचाने को,
धर्म निभाने को अपना, बेटी का ब्याह रचानो को,
ऋण का भारी बोझ पिता को सिर पर ढोना पड़ता है,
मंगलसूत्र गँवा कर माँ को छुप-छुप रोना पड़ता है,
घर से बेघर किया समय ने, फूल बने सब कंटक-दल।
इस दहेज के दानव ने सारे समाज को दिया है कुचल।।

होकर विदा पिता के घर से जब प्रियतम घर आती है,
नई नवेली वधू बनी कुछ दिन तक आदर पाती है,
किन्तु कदलते मौसम को लगती फिर ज़्यादा देर नहीं,
कोई व्यथा नहीं ऐसी जो लेती उसको घेर नहीं,
बना दिया पतझर ने आकर मधुबन को जैसे मरूथल।
इस दहेज के दानव ने सारे समाज को दिया है कुचल।।

बढ़ते जाते रोज़ मांग पर मांग ग़मों के अफ़साने,
व्याकुल होता मन अबला का, सुन कर तानों पर ताने,
धन के लोलुप लोगों की लिप्सा कब हो पाती पूरी,
शोक हरें बिटिया का कैसे, मात-पिता की मजबूरी,
फँूक दिए अरमान सभी, भड़का दुख का वह दावानल।
इस दहेज के दानव ने सारे समाज को दिया है कुचल।।

साँस ले सके सुख की, ऐसा पल न कभी मिला पाता है,
त्रास-घुटन-बेचैनी में जीना दूभर हो जाता है,
रोम-रोम घायल होता, सहते -सहते आघातों को,
तरस-तरस जाता मन मीठी प्यार भरी दो बातों को,
आहत हिरणी को पड़ते हैं व्यंग्य-बाण सहने हर पल।
इस दहेज के दानव ने सारे समाज को दिया है कुचल।।

जीवन के अम्ब में आते घिर-घिर कर बादल काले,
भूख चाटती शोणित को जब पड़ते रोटी के लाले,
भूखी-प्यासी आँतें जब बिल्कुल बेबस हो जाती हैं,
आँसू की भाषा में अनतर की व्यथा सुनाती हैं,
जीते जी ही चिता सजी आंगन में, मरघट हुआ महल।
इस दहेज के दानव ने सारे समाज को दिया है कुचल।।

बढ़ते-बढ़ते पापों का जब हद से पारावार बढ़ा,
रक्षक ही भक्षक बन बैठे इतना अत्याचार बढ़ा,
तोड़ दिय निर्दयता से सुरभित सुमनो की माला को,
ममता की पावन प्रतिमा को, किया समर्पित ज्वाला को,
हाथ रह गए रक्त सने, डोली अरथी में गई बदल।
इस दहेज के दानव ने सारे समाज को दिया है कुचल।।

झुलस गईं लपटों में कितनी बदनसीब सीता-गीता,
तोड़ गईं नाता जीवन से, कितनी ही नव परिणीता,
दुराचार की भेंट चढ़ाकर अपनी भरी जवानी को,
चली गई लिाख कर लोहू से दुखमय करूण कहानी को,
पावनता का बना प्राणघातक पशुता का कोलाहल।
इस दहेज के दानव ने सारे समाज को दिया है कुचल।।

काँप-काँप जाते जिनके पापों से अवनी-अम्बर हैं,
कैसे मानव कह दें उनको, खल हैं, निपट निशाचार हैं,
किंचित भी जो द्रवित न होते करूणा स्कित पुकारों से,
घोर नर्क भी नफ़रत करता है ऐसे हत्यारों से,
धन के लालच ने आधमों का किया अपावन अन्तस्तल।
इस दहेज के दानव ने सारे समाज को दिया है कुचल।।

ओ समाज के ठेकेदारो! तनिक होश में तुम आओं,
कब तक होगा यह विनाश का ताण्डव यह तो बतलाओ,
जब तक होगा इस दहेज के दानव का संहार नहीं,
भारत की ललनाओं का होगा तब तक उद्धार नहीं,
धो डालो अब इस कंलक को, भाव भरो मन में निर्मल।
इस दहेज के दानव ने सारे समाज को दिया है कुचल।।