भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दादाजी की बड़ी दवात / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भरी लबालब स्याही से है,
दादाजी की बड़ी दवात।

उसमें कलम डुबाकर दादा,
जब कागज पर लिखते हैं।
लगता, चांदी की थाली में,
नीलम जड़े चमकते हैं।
या लगता है स्वच्छ रेत पर,
बैठी नीलकंठ की पांत।

अच्छे-अच्छे बड़े कीमती,
पापा पेन उन्हें देते।
पर दादाजी धुन के पक्के,
नहीं एक भी हैं लेते।
कलम-दवात नहीं छोडूंगा,
कहते, बचपन का है साथ।

बच्चे मुंह बिदककर हंसते,
दादाजी जब लिखते हैं।
स्याही भरी दवात-कलम तो,
उन्हें अजूबा लगते हैं।
कहते पुरा-पुरातन हैं ये,
छोड़ो इन चीजों का साथ।

दादाजी को यही पुरानी,
चीजें बहुत सुहाती हैं।
हमें सभ्यता संस्कार से,
वे कहते, जुड़वाती हैं।
पापाजी ही समझ सके हैं
उनके भीतर के जज्बात।