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दाम्पत्य / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
जब मैं उससे प्रेम की बात करता हूँ
वह बेरूख़ी से जबाब देती है
मेरा नशा काफ़ूर हो जाता है
तारीफ़ करने पर कहती है
बहुत बड़े कविराज बने हुए हो
तुम्हारे लिए मैंने अपनी ज़िन्दगी
तबाह कर दी है
मुझे कुछ भी हासिल नही हुआ
धीरे-धीरे इसरार करने पर
कम होने लगता है उसका
गुस्सा
वह पुराने स्वभाव में लौटने
लगती है
मुस्कराकर कहती है
अब भी तुम्हारी पहलेवाली आदत
गई नहीं है