अर्जुन दग्ध कियो वन खाण्डव,
जाय यो काज तो तुच्छ सरायो ।
केसरी पुत्र कछु न करी अहो !
स्वर्ण की लंक को जाय जरायो ।
त्रिभुवन नाथ मदन को जारि के,
लोक आनन्द को दूर दुरायो ।
सब जन के मन में ताप करे,
रे ! दारिद्र को जारन को नहीं आयो ।