भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दावत / आलोक कुमार मिश्रा
Kavita Kosh से
दिन किसी रोटी की तरह
फूल कर नाचता रहा
दोपहर के गर्म तवे पर,
साँझ की नरम हथेलियाँ
बढ़ आईं हैं उस तक।
ठंडी करके रोटियाँ
परोस दी जाएंगी
आकाश की थाली में,
उन्हें जेवने बैठ जाएगी
तारों की पंगत,
देर रात तक चलेगी दावत।
भोर में ही जग जाएगी
एक स्त्री,
नहाकर आकाशगंगा में
चल पड़ेगी माँजने
संसार की थाली, तवा, बर्तन
और फिर फूंकेगी
सूरज की भट्टी।