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दिए-सी जलती औरत / मधु गजाधर

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ना जाने क्यूं,
जब भी कभी मैं,
मंदिर में,
पीपल या वट वृक्ष के नीचे,
किसी मुंडेरी पर,
पानी की लहरों पर,
लम्बे बांस के ऊपर टिके,
दीपदान में,
अंगना में तुलसी के पौधे तले,
सीडियों पर,
द्वार पर
या
किसी कब्रिस्तान में ,
शमशान घाट पर
या फिर किसी
समाधि पर,
किसी दीये को जलते देखती हूँ
तो
'औरत !,
ना जाने क्यों,
मुझे हर दीये में
तू ही नज़र आती है ,
दीया और तू
तू और दीया...
और
हर दीये में तू ही तू
मंदिर में जलता दिया
"तू पिया प्यारी बन जाती है"
पीपल या वट वृक्ष के नीचे,
जलता दिया
धर्म और संस्कृति को
आँचल में संभाले
धर्म भीरू बन जाती है,
किसी मुंडेरी पर,
जलता दिया
अपने प्रियतम की प्रतीक्षारत
प्रेयसी बन जाती है,
पानी की लहरों पर,
तैरता दिया
मानो
तू अपना अपनत्व फैला रही है
लम्बे बांस के ऊपर टिके,
दीपदान में,
जलता दिया
पितरों का आशीर्वाद ग्रहण करती तू,
अंगना में तुलसी के पौधे तले,
जलता दिया
बताता है की
तू ही अपने घर की
प्राण शक्ति है,
सीडियों पर,
द्वार पर
जलता दिया
अपने नए कुल की
कुलदेवी का स्वागत करती तू
और.....
किसी शमशान घाट पर
या फिर किसी
समाधि पर
जलता दिया....
तेरी बेबसी,
तेरी पीड़ा,
तंग आकर मृत्यु का वरण
उफ़.......
औरत
तू सच में एक "दीया" है,
तेरी परिस्थितियां
भिन्न हो सकती हैं,
तेरी उम्र, सोच, भाव
भिन्न हो सकते हैं,
परन्तु जलना
और
जल कर दूसरों को प्रकाशित करना
ये ही तेरा कर्म है,
ये ही तेरा धर्म है,
तिल, तिल करके
जलती औरत!
अगर तू ना होती,
तो
इस ब्रह्माण्ड में,
कोई प्रकाश ना होता
कही कोई उजाला ना होता,
कोई अपनापन न होता,
करुणा, प्रेम, त्याग
कुछ भी ना होता
तुझ को नमन
हे धरती की धात्री
तुझ को सौ सौ नमन