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दिगम्बरा पाताचार / अनिल अनलहातु

तीन वर्ष की एक काली नंगी
"हो" लड़की खड़ी है,
घने जंगलों और पहाड़ियों के बीच
उगे कुकुरमुत्ते जैसे
इस बस्ती के एक छोर पर,
हाथों में लिए / देखती
शाल (साल) के एक गिरे
बड़े पत्ते को।

शाल के लम्बे चुप डोलते पेड़
बिखरती पत्तियां,
उदासी बरसाता, वीरान माहौल
पुट्ठों तक कटी पूंछ
डुलाती अशक्त निरीह गाय।

अप्रैल के इस उजाड़ महीने में
दरकी दीवारों के पार
शाल वनों के झुरमुट में
रोता हुआ मैं।

पचरी नाले के उस पार
जीवन के कुछ आदिम अवशेष,
वह लड़की मेरी घनीभूत पीड़ा की
दारुण प्रतीक।

"सब्बं दु:खं" कहा उसने
और अनाथपिंडक उठकर
चला गया सदा के लिए
शाल वनों के पार।

मेरे पैरों के नीचे
चरमरा रहे
शाल के सूखे पत्ते,
उस ठूंठ पर बैठा
वह कौन?

अधूरी कविताओं के ढेर से निकला
नियनडरथल मानव तब चुपचाप
बेहिस्तून अभिलेख में पढ़ रहा
मानवीय पीड़ा का इतिहास।

ज़िगुरत के पश्चिम
नन्नार की पहाड़ी पर,

इक्कीसवीं की नियति
प्रोटो टिथीस के पथरीले प्रान्तर में
घुटनों के बल घसीटती
रेंगती है
अश्वत्थामा की तरह।

साँझ के झुटपुटे में
शाल वनों के झुरमुट में
कौन है वह
जो चला जा रहा सदा के लिए,
सारे संसार को
अमरता का पाठ पढ़ा
खुद निपट अकेला?



1 । दिगंबरा पताचारा-बुद्ध के समय की एक स्त्री जो दुर्घटना में अपने पति, दोनों बच्चों को खो देती है, श्रावस्ती में उसके माता पिता भाई भी जीवित नहीं रहते, घर भी टूट जाता है ऐसे समय जेतवन में बुद्ध उसे दीक्षा देते हैं।