दिग्वधू (कविता) / राजेन्द्र प्रसाद सिंह
नील शून्य यह किमाकार
निष्कूल पारदर्शी रत्नाकर एक अचंचल,
फहराता रहता उस पर लय- ताल- मुक्त यह,
ओ रहस्य रमणी! अज्ञात तुम्हारा अंचल!
नन्दन वन के सतरंगे वे चपल विहंगम,
जिनके झड़े हुए पंखों से निर्मित, कोमल—
फूले तूलाकार प्रसूनों से बहु गुम्फित,
सिन्धु फेन के रजत-स्वर्ण गुच्छों से मण्डित –
ओ दिग्वधू! तुम्हारा अंचल, फहर-फहर पर तड़ित्तार सब झलमल,
अस्तित्वों के मनोभाव झलकाते पल-पल!
अक्षर, अमल,अपश्य पूर्णविधु परम व्योम में,
कुसुमाकर के राग-दीप उन्मद आनन्-सा,
दिव्य मधु-श्री बरसाता-सा भुवन-भुवन में
उसकी तुम उन्मत्त चकोरी तृप्तिशालिनी!
उच्छवासों से रह-रह अनिल-तरंग उठाती,
लीला भरती शून्य-सिन्धु की लहर-लहर में –
चिर अखंड ‘वह इन्दु-बिम्ब’ लेकर अंतर में,
खेल रही जो, प्रमन-प्रमन अपने रत्नों से!
मुसकाते से द्योतित करती रहती निशि-दिन,
ग्रह-पुंजो के महारत्न तुम, ज्योतिचारिणी!
उस निर्मल राकेश-रश्मि-रंजन से पुलकित
सतरंगी यह खिली कुमुदिनी वनी मेदिनी,
उस पर खड़ी हुई मायाविनी! तुम एकाकी,
अपने मर्मी नयन दिव्य अंजन से सारे,
कोमल अरुण चरण से छू-छूकर बन जाते
साँझ-उषा की जल परियों के पट रतनारे!
ऋद्धि-सिद्धि, शारदा और श्री : सखी तुम्हारी,
नित्य गूंथती नव सुगन्ध से उर्मिल वेणी,
चन्द्र-बन्ध सज देती उस पर सुर-बालाएँ,
बाल-सूर्य का भाल-बिंदु वह, नित्य लगा जाते हैं देव कुमार
द्वादश रूद्र किरीट जड़ित हो दीप्त स्वयं साभार |
विद्याधर,गंधर्व, यज्ञ सब घेर-घेर कर कुसुम-वृत्त में
उड़ा रहे अभ्रक - तारक अनिवार!
तुमने दिव की ओर –
सहसा फेरी सहज दृष्टि ही अर्धार्निमीलित; जैसे मधु में बोर –
सपनों का दे खोल, वनज-वातायन कोई, या पलकों की कोर!
देख-देख साकार विभा अब अपने अयुत नयन की घन उन्माद-तरंग में
तिरता-सा इंद्र आ गया, झुका, चरण-तल अर्पित कर ऐश्वर्य सृष्टि का,
व्रज नाद से जो रक्षित-सा रत्नच्छाया-भार!
सहज मदिर आकर्षण से ही अंध- अवश हो,
आये वरुण, कुबेर, अग्नि, यम, पूषा --सारे
लाये अपनी महाशक्तियाँ शीतल-दाहक –
सब अर्पित कर, भूल गए अपनी सत्ता भी;
जैसे सब बंध गए तुम्हारे मौन रूप की ज्वाल-माल में निःसंकल्प, निरीह!
तुमने सहसा चल चितवन के विज्जु-वाण से
भेद शून्य की नीरव छाती, हास-मुखर कर,
बरसाई झड़ते मधु-कण से शत छायाएँ –
शब्द-रूप-रस-गंध-स्पर्श-चंचल अप्सरियाँ ;
शची और रति के निर्देशन पर बल खाती,
नृत्य, नाद, लय,गीत,ताल से हर्ष मनाती –
दिग्मंडल के प्रथम-प्रथम अवतरण-क्षणों में
प्रकटा जो चिर तरुण, दशमुखी ज्योति-ज्वार सा,
पृथ्वी के जीवन-पथ- चुम्बी उद्ध्रर्व द्वार-सा!
शब्द-रूप-रस-गंध-स्पर्श-चंचल अप्सरियाँ ;
लगी नाचने साथ-साथ, उर्वशी, मेनका, रम्भा, आदि
कि अगणित गति-विह्लव किन्नरियों,
सब छाया रंगिणी विभा में!
गूँज उठी जीवंत मूक गति, दिग्दिगंत में निःस्वन!
अश्रु-हास-स्वर, कलरव, मर्मर, कल-कल, छल-छल,
घहर-घहर, झन-झन, गर्जन ...में पग-ध्वनि गोपन,
जीवन के श्रम और विराम विषम सम बनकर
कब से उनके नूपुर से विच्छुरित, सनातन!
कोलाहल की स्वप्न-मूर्तियों का विराट संगीत—यह नीरव, गोतीत;
तुम जिसकी स्वामिनी, आत्मा-परिणीता, प्रेमातीत!
त्रिपुर-सुन्दरी, प्राण- अप्सरी, सृष्टि-स्वप्न की रानी,
अवगुंठिता,रहस्यमयी तुम, रूप-शिखा कल्याणी!
पर, किस मोह-मदिर, सुधि-हारी इंद्रजाल से
सबकी है बँधगई दृष्टियाँ निज में खोई ;
तुमने बाँध दिया किस व्यापक मन्त्र-दाम से
यह हिरण्य-अनुभूति-जाल उड़ता धरणी का!
अमिट गहन सम्मोहन निद्रा-सी फैलाकर,
भटकती कण-कण को तुम लीला-स्वप्नों में!
नाश और निर्माण मौन इंगित पर चलते,
नियति-रूपिणी चपल उंगुलियों के कंम्पन पर
गर्व खर्व होता अलक्ष्य-विजई मानव का!
वंकिम भ्रू-संकेत बुद्धि के भ्रम-जालों में
उलझा देता ऋजु श्रध्दा की मणि-माला को,
भाल-रेख की चल गहराई मानव-मन को महाभंवर में चक्कर देती,
लक्ष्य-भ्रष्ट कर सदा-सदा से, दिग्भ्रम में हर रोज घुमाती,
कर देती ध्रुव-हीन, यही तुम्हारी क्रीडा, ओ निष्ठुरे! स्वयं में लीन
दिग्वधू! अरूप अनामा, ओ मूल शक्ति अभिरामा!
स्वर्भू की चिर प्रेयसी दिव्य तुम स्वयं चिरंतर श्यामा!
पर, कमी चलेगा पुष्प-यान पर मनुष्यत्व अवरोध-हीन
भुज खोल, तुम्हारी ग्रीवा में वरमाला डालने को, संगर्व,
रा! तुम्हें बनाने को निसर्गिनी वामा!