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दिन-ब-दिन अब लुत्फ़ तेरा हम पे कम होने लगा / 'सिराज' औरंगाबादी
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दिन-ब-दिन अब लुत्फ़ तेरा हम पे कम होने लगा
या तो था वैसा करम या ये सितम होने लगा
सच कहो तक़सीर क्या है आशिक़-ए-मज़लूम की
नीमचा तिरछी निगह का क्यूँ अलम होने लगा
बस करो ऐ शाह-ए-फ़ौज-ए-हुस्न क़त्ल-ए-आम कूँ
आशिक़ों की आह का नेज़ा अलम होने लगा
तुझ कूँ ऐ आहु-निगाह किस ने सिखाया ये तरह
या तो था औरों सी रम या हम सीं रम होने लगा
हिज्र की रातों में ये मिस्रा हुआ विर्द-ए-‘सिराज’
दिन-ब-दिन अब लुत्फ़ तेरा हम पे कम होने लगा