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दिन चढ़े ही / सोम ठाकुर
Kavita Kosh से
दिन चढ़े ही भूल बैठे हम
धूप के परिवार की भाषा
बोलती हैं रौशनी भी अब
मावसी आँधियार की भाषा
गालियाँ देंगी उन्हे मंज़िल
वक्त उनके नाम रोएगा
भोर का इतिहास भी उनकी
सिर्फ़ ज़िंदा लाश ढोएगा
नाव पर चढ़कर करेंगे जो
अनसुनी मझदार की भाषा
स्वप्न है बेशक बहारों के
है ज़रूरत आगमन की भी
मानते है बेड़ियाँ टूटी
तोड़िए जंजीर मन की भी
गीत - क्षण से कर सकेंगे हम
प्यास को संसार की भाषा
तू थकान का नाम मत ले रे
पर्वतों को पार करना है
मरुथलों को मेघ देने है
फागुनो में रंग भरना है
रंज है इस बात का हम को
सर्द है अंगार की भाषा