दिन जाते देर नहीं लगती, यह तो सच है;
फिर मुझे रात ही क्यों पहाड़-सी लगती है?
बस एक कुतूहल है कि शिखर चढ़कर देखूँ
क्या है वह पार-पुकार, मुझे जो ठगती है!
दिन जाते देर नहीं लगती, यह तो सच है;
फिर मुझे रात ही क्यों पहाड़-सी लगती है?
बस एक कुतूहल है कि शिखर चढ़कर देखूँ
क्या है वह पार-पुकार, मुझे जो ठगती है!