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दिन ढले खुशियाँ उतरतीं आसमां से / कैलाश झा 'किंकर'

दिन ढले खुशियाँ उतरतीं आसमां से
रोशनी छनकर निकलती है मकां से।

नूर जैसे फैलता जाता ज़मीं पर
मुस्कुराहट खेलती है बागवां से।

धूम थी जिनकी फ़क़ीरी की जगत में
वो हुए अव्वल तुम्हारी इम्तिहाँ से।

बा-क़सम तेरी मुहब्बत का है जल्वा
दाद मिलती है तुम्हें सारे जहाँ से।

भर गयी झोली दुआ से अब तुम्हारी
ग़ुफ़्तगू होती ही होगी कह-कशां से।

काम ऐसा कर चलो "किंकर" यहाँ पर
ज़िन्दगी खिल जाए कदमों के निशां से।