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दिन ढले घर लौटते सारे परिन्दे हैं / कैलाश झा 'किंकर'

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दिन ढले घर लौटते सारे परिन्दे हैं।
आप इतनी रात तक कैसे भटकते हैं।

ढोल की जब पोल खुलती है करीने से
तब समझ पाते कि हम भी कितने भोले हैं।

होशियारी से ही मिलती जीत दुनिया में
हार मिलती आप जब आदर्श गढ़ते हैं।

उनको अपनी ही पड़ी है हर घड़ी लेकिन
हम तो अरमानों को उनपर वार देते हैं।

पेड़ से पत्ते अलग होकर न जी सकते
पेड़ से पत्तों के रिश्ते हमने देखे हैं।