भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिन निकलने दे ! / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
दिन निकलने दे
ज़रा-सा दिन निकलने दे !
रास्ते आधे-अधूरे-से
दिख रहे जो तानपूरे-से
तार में सरगम सँभलने दे
थम, ज़रा-सा दिन निकलने दे !
राग जब आकार पाएगा
स्याह घेरा टूट जाएगा
ख़ून स्याही में उबलने दे
थम, ज़रा-सा दिन निकलने दे !
उँगलियाँ ख़ुद तार को छूकर
व्योम को ले आएँगी भू पर
घाटियों को आँख मलने दे
थम, ज़रा-सा दिन निकलने दे !