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दिन पहाड़ से कैसे काटें / एक बूँद हम / मनोज जैन 'मधुर'

दिन पहाड़ से कैसे काटें
चुप्पी ओढ़े रात बीतती
सन्नाटे दिन बुनता
हुआ यंत्रवत यहाँ आदमी
नहीं किसी की सुनता
सबके पास समय का टोटा
किससे अपना सुख-दुख बॉंटें
दिन पहाड़ से कैसे काटें

बात-बात में टकराहट है
कभी नहीं दिल मिलते
ताले जड़े हुए होंठों पर
हाँ ना में सिर हिलते
पीढ़ीगत इस अंतराल की
खाई को हम कैसे पाटें ?
दिन पहाड़ से कैसे काटें

पीर बदलते हाल देखकर
पढ़ने लगी पहाड़े
तोड़ रहा दम ढाई आखर
उगने लगे अखाड़े
मन में उगे कुहासों को हम
इन बातों से कैसे छॅंाटें ?
दिन पहाड़ से कैसे काटें