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दिन भी हुआ तवील और धूप का सफ़र / विनोद तिवारी

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दिन भी हुआ तवील और धूप का सफ़र
क्या जाने कितनी मील और धूप का सफ़र

नश्तर-से चुभ रहे हैं ज़हन और जिस्म में
पाँवों गड़ी है कील और धूप का सफ़र

टपका हुआ पसीना भी गीतों से ढँक गया
जंगल में कोई भील और धूप का सफ़र

दुनिया में अब नमी है न नरमी न ताज़गी
सूखी है मन की झील और धूप का सफ़र

मजबूरियों को ढोना यहाँ ज़िंदगी का नाम
बस हुक़्म की तामील और धूप का सफ़र