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दिन लद गये तुम्हारे कोयल / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय

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देखो! छोड़ दो सब
और इधर
बैठ जाओ चुप होकर
जगह नहीं मिलेगा छिपने के लिए

या तो चले जाओ अभी से मोह त्याग
परिवेश-परिधि से दूर बहुत दूर निकल कर
शकल पहले भी नहीं इतनी सुंदर
उलटे भीनी मधुर आवाज नहीं भाती किसी को
काँव काँव के हिमायती लोग खदेड़ ही दिये थे तुम्हें
ये तो कवि कुल परंपरा थी कर दिए थे बखान कूक की
नहीं तो पहले भी कहाँ सुनते थे तुम्हें किसे होती थी फुरसत

सुनो! रात को चिल्लाना छोड़ दो
दुपहरिया खराब करने की आदत से बाज आओ
सोने दो नींद वालों को नहीं तो ठप्पा लगेगा शोषक का
तहरीर दे देंगे तुम्हारे खिलाफ बच्चों की भावनाओं से खेलने का
बीमार बूढों को परेशान करने और जवानों को ब्लैक मेल करने का

वह दिन गया सुनकर तुम्हें याद आए
वियोगी अब तड़पा नहीं करते रहते हैं संयोग में
संदेशों के माध्यम बदल गये हैं इधर कई कई सालों से
प्रिय-प्रियाएं भी व्यस्त हैं नई सदी के तकनीकी प्रयोग में
नहीं सुनाई देता गाँव में घूम रहा है कोई बेचैन हो प्रेम-रोग में

दिन लद गये तुम्हारे कोयल!
गाँव नगर ये महानगर भ्रम हो गये हैं सब
कवि लेखक कलाकार सब भूलकर हो गये हैं विदूषक
शहनाई बाँसुरी सितार बन गये हैं सदी के सबसे बड़े प्रदूषक
उठो और देखो कोई और नगर नहीं तो बाद में रोवोगे विलखकर