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दिन / गुलाब सिंह
Kavita Kosh से
फूलों भरी हरी धरती से
झुककर कुछ कहते हैं दिन
कच्चा रेशम धूप हो गई
नदी दूध की धोई
रात चाँदनी झोपड़ियों के
गले लिपटकर रोई
पगडंडी के सूनेपन को
सुबह शाम सहते हैं दिन
सरसों के पीले पृष्ठों पर
हवा गीत गोविंद लिखे
रहकर मौन दर्द दोहराते
शीश झुकाएँ गाँव दिखे
बजते हैं बाँसुरी सरीखे
आँसू से बहते हैं दिन
सूखे अधर प्यास पथराई
नयन उरेहें सपने
पानी पत्थर बीच प्यार के
अँखुए लगे पनपने
शाकुन्तल सतसईं खोलकर
मोरपंख रखते हैं दिन