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दिये कहाँ जलाएँ आख़िर ? / निकिता नैथानी

दिये कहाँ जलाएँ आख़िर ?

रोशनी से जगमगाते घरों में
या अन्धेरे से भरे हुए दिलों में

पकवानों से महकती रसोई में
या भूख से भरे ख़ाली कटोरों में

दिये कहाँ जलाएँ आख़िर ?

मखमली रजाइयों से भरे कमरों में
या ठण्ड से ठिठुरते फुटपाथों पर

प्यार की गर्माहट से भरे रिश्तों में
या उदासी से भरे हुए सिरहानो में

दिये कहाँ जलाएँ आख़िर ?

आसमाँ छूती इमारतों में
या घृणा में खोती बस्तियों में

चमचमाते हुए मॉल रेस्तराँ में
या मरते हुए किसान के खेतों में

दिये कहाँ जलाएँ आख़िर ?

रूढ़ियों का घर बन चुके मन्दिरों और मस्जिदों में
या ज्ञान कि लौ सम्भाले हुए दम तोड़ते स्कूलों में

लगातार फलती हुई विलासिता में
या रोज़ कटते हुए पेड़ों के मातम में

दिये कहाँ जलाएँ आख़िर ?

शहरों की तरफ़ रुख़ करते लोगों में
या दिन ब दिन वीरान होते गाँवों में

हर तरफ़ लगातार बढ़ते शोर में
या शान्ति से एक छोटे से छोर में

दिये कहाँ जलाएँ आख़िर ???