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दिलदारी-ए-जानाँ को लपकते चले जाएँ / फ़ाज़िल जमीली

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दिलदारी-ए-जानाँ को लपकते चले जाएँ ।
आँखों के कटोरे भी छलकते चले जाएँ ।

बारिश की तरह कोई बरसता रहे हम पर,
मिट्टी की तरह हम भी महकते चले जाएँ ।

जाना है अगर हमको तेरे ख़्वाब कदः तक
लाज़िम तो नहीं है भटकते चले जाएँ ।

खुल जाए ज़माने पे कभी अपनी अमीरी
कासे में जो सिक्के हैं ख़नकते चले जाएँ ।

कुछ तू है बता आज हमें चश्म-ए- गुरेजाँ
रुकते चले जाएँ कि सरकते चले जाएँ ।

आँखों में कोई चाँद उतरता चला जाए,
पलकों पे सितारे से चमकते चले जाएँ ।

उस हुस्न से वाबस्ता कुछ एहसास हैं ऐसे
दिल की तरह सीने में धड़कते चले जाएँ ।

ऐसा भी नहीं है कि उन आँखों से पिएँ कम
ऐसा भी नहीं है कि बहकते चले जाएँ ।

फिर साज़िश-ए-दरबाँ से हैं मोताद क़दम हम,
पैरों के ये घूँघरू नहीं छनकते चले जाएँ ।

यूँ हमसे बिछड़ने का सबब कोई तो होगा,
जाने का कोई नाम ही रखते चले जाएँ ।

हमने भी मौहब्बत से बहुत काम लिए हैं,
जाते हुए हमको भी परखते चले जाएँ ।

फ़ाज़िल तेरी ग़ज़लों में भी क्या आग भरी है
पढ़ते चले जाएँ तो दहकते चले जाएँ ।

शब्दार्थ : कदः = मयख़ाना कासा = भिक्षापात्र, कटोरा चश्म-ए- गुरेजाँ = घृणा करने वाले मोताद = गिने हुए