भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिलऽ केॅ दरद-व्याकुल परान छै / कस्तूरी झा 'कोकिल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

व्याकुल परान छै,
कैहनें नीं आबै छौ?
की रं निरमोही छऽ
कत्ते तड़पाबै छौ?
ई रंगतेॅ कैहियो नैं
भेल हो कठोर।
उठै छै हिरदय में
हरदम हिलोर।
तनीं मनीं रूसा बौंसी,
आँखीं सें बात।
मुसकी केॅ मिलन जुलन
रंगोली रात।
आबेॅ तेॅ दिनैंह में
सूझै छै तारा।
केू पूछतै हालचाल?
हम्मे बेचारा।