दिल्ली कब शर्मिंदा होगी / विजय कुमार विद्रोही
दिल्ली कब शर्मिंदा होगी कब ये आँखें खोलेगी,
माँ के लालों को कितना वोटों नोटों से तोलेगी,
सुनते आऐ नीतिवाक्य अब अपने संग ही धरे रहो,
आँखें मूँदे , हाथ बांधकर सिंहासन पर पड़े रहो ।
हमको अपनी मातृभूमि का वंदन करना आता है,
भारत-भू की रज को अक्षत चंदन करना आता है,
हमें तिरंगे झंडे का सम्मान बचाना आता है,
भारत माता के सर पे कश्मीर सजाना आता है ।
नहीं चाहिये कैसे भी दिन केवल राष्ट्रसमर्पण हो,
राजनीति का ज़र्रा - ज़र्रा भारत माँ को अर्पण हो,
संसद के ओ दत्तकपुत्रों जन-गण-मन का मान करो,
मंदिर मस्ज़िद रार मिटा मानवता का कल्याण करो ।
हम धूमशिखाओं को देखें वो अग्निबाण चलाता है,
हर हरकत नापाक़ धरे पर पाकिस्तान कहाता है,
सीमा प्रहरी पुत्रों को अब क्यों जकड़ा है ज़ंजीरों में,
क्या केवल मर जाना ही लिख्खा उनकी तक़दीरों में ।
सिंहासन के सततकृमिसुत कबतक जी बहलाओगे,
धृतराष्ट्र सरीखे बन बैठे केवल गद्दार कहाओगे,
सिर पीटोगे वही गुलामी फिर अपने संग हो लेगी ।
दिल्ली कब शर्मिंदा होगी कब ये आँखें खोलेगी,
माँ के लालों को कितना वोटों नोटों से तोलेगी ।