दिल्ली / हुंकार / रामधारी सिंह "दिनकर"
यह कैसे चाँदनी अमा के मलिन तमिस्त्र गगन में!
कूक रही क्यों नियति व्यंग्य से इस गोधूली-लगन में?
मरघट में तू साज रही दिल्ली! कैसे श्रृंगार?
यह बहार का स्वांग अरी, इस उजड़े हुए चमन में!
इस उजाड़, निर्जन खंडहर में,
छिन-भिन्न उजड़े इस घर में,
तुझे रूप सजने की सूझी
मेरे सत्यानाश प्रहर में!
डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया तराना
और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना;
हम धोते हैं घाव इधर सतलज के शीतल जल से,
उधर तुझे भाता है इनपर नमक हाय, छिड़काना?
महल कहाँ? बस, हमें सहारा
केवल फूस-फाँस, तृणदल का;
अन्न नहीं, अवलंब प्राण को
गम, आँसू या गंगाजल का;
यह विहगों का झुण्ड लक्ष्य है
आजीवन बधिकों के फल का,
मरने पर भी हमें कफ़न है
माता शैव्या के अंचल का!
गुलचीं निष्ठुर फेंक रहा कलियों को तोड़ अनल में,
कुछ सागर के पार और कुछ रावी-सतलज-जल में;
हम मिटते जा रहे, न ज्यों, अपना कोई भगवान्!
यह अलका छवि कौन भला देखेगा इस हलचल में?
बिखरी लट, आँसू छलके हैं,
देख, वन्दिनी है बिलखाती,
अश्रु पोंछने हम जाते हैं,
दिल्ली! आह! कलम रुक जाती।
अरि विवश हैं, कहो, करें क्या?
पैरों में जंजीर हाय, हाथों-
में हैं कड़ियाँ कस जातीं!
और कहें क्या? धरा न धँसती,
हुन्करता न गगन संघाती!
हाय! वन्दिनी माँ के सम्मुख
सुत की निष्ठुर बलि चढ़ जाती!
तड़प-तड़प हम कहो करें क्या?
'बहै न हाथ, दहै रिसि छाती',
अंतर ही अंतर घुलते हैं,
'भा कुठार कुंठित रिपु-घाती!'
अपनी गर्दन रेत-रेत असी की तीखी धारों पर
राजहंस बलिदान चढाते माँ के हुंकारों पर।
पगली! देख, जरा कैसे मर-मिटने की तैयारी?
जादू चलेगा न धुन के पक्के इन बंजारों पर।
तू वैभव-मद में इठलाती
परकीया-सी सैन चलाती,
री ब्रिटेन की दासी! किसको
इन आँखों पर है ललचाती?
हमने देखा यहीं पांडू-वीरों का कीर्ति-प्रसार,
वैभव का सुख-स्वप्न, कला का महा-स्वप्न-अभिसार,
यही कभी अपनी रानी थी, तू ऐसे मत भूल,
अकबर, शाहजहाँ ने जिसका किया स्वयं श्रृंगार।
तू न ऐंठ मदमाती दिल्ली!
मत फिर यों इतराती दिल्ली!
अविदित नहीं हमें तेरी
कितनी कठोर है छाती दिल्ली!
हाय! छिनी भूखों की रोटी
छिना नग्न का अर्द्ध वसन है,
मजदूरों के कौर छिने हैं
जिन पर उनका लगा दसन है।
छिनी सजी-साजी वह दिल्ली
अरी! बहादुरशाह 'जफर' की;
और छिनी गद्दी लखनउ की
वाजिद अली शाह 'अख्तर' की।
छिना मुकुट प्यारे 'सिराज' का,
छिना अरी, आलोक नयन का,
नीड़ छिना, बुलबुल फिरती है
वन-वन लिये चंचु में तिनका।
आहें उठीं दीन कृषकों की,
मजदूरों की तड़प, पुकारें,
अरी! गरीबों के लोहू पर
खड़ी हुई तेरी दीवारें।
अंकित है कृषकों के दृग में तेरी निठुर निशानी,
दुखियों की कुटिया रो-रो कहती तेरी मनमानी।
औ' तेरा दृग-मद यह क्या है? क्या न खून बेकस का?
बोल, बोल क्यों लजा रही ओ कृषक-मेध की रानी?
वैभव की दीवानी दिल्ली!
कृषक-मेध की रानी दिल्ली!
अनाचार, अपमान, व्यंग्य की
चुभती हुई कहानी दिल्ली!
अपने ही पति की समाधि पर
कुलटे! तू छवि में इतराती!
परदेसी-संग गलबाँही दे
मन में है फूली न समाती!
दो दिन ही के 'बॉल-डांस' में
नाच हुई बेपानी दिल्ली!
कैसी यह निर्लज्ज नग्नता,
यह कैसी नादानी दिल्ली!
अरी हया कर, है जईफ यह खड़ा कुतुब मीनार,
इबरत की माँ जामा भी है यहीं अरी! हुशियार।
इन्हें देखकर भी तो दिल्ली! आँखें, हाय, फिरा ले,
गौरव के गुरु रो न पड़े, हा, घूंघट जरा गिरा ले!
अरी हया कर, हया अभागी!
मत फिर लज्जा को ठुकराती;
चीख न पड़ें कब्र में अपनी,
फट न जाय अकबर की छाती।
हूक न उठे कहीं 'दारा' की
कूक न उठे कब्र मदमाती!
गौरव के गुरु रो न पड़ें, हा,
दिल्ली घूंघट क्यों न गिराती?
बाबर है, औरंग यहीं है
मदिरा औ' कुलटा का द्रोही,
बक्सर पर मत भूल, यहीं है
विजयी शेरशाह निर्मोही।
अरी! सँभल, यह कब्र न फट कर कहीं बना दे द्वार!
निकल न पड़े क्रोध में ले कर शेरशाह तलवार!
समझायेगा कौन उसे फिर? अरी, सँभल नादान!
इस घूँघट पर आज कहीं मच जाय न फिर संहार!
जरा गिरा ले घूँघट अपना,
और याद कर वह सुख सपना,
नूरजहाँ की प्रेम-व्यथा में
दीवाने सलीम का तपना;
गुम्बद पर प्रेमिका कुपोती
के पीछे कपोत का उड़ना,
जीवन की आनन्द-घडी में
जन्नत की परियों का जुड़ना।
जरा याद कर, यहीं नहाती---
थी रानी मुमताज अतर में,
तुझ-सी तो सुन्दरी खड़ी---
रहती थी पैमाना ले कर में।
सुख, सौरभ, आनन्द बिछे थे
गली, कूच, वन, वीथि, नगर में,
कहती जिसे इन्द्रपुर तू वह-
तो था प्राप्य यहाँ घर-घर में।
आज आँख तेरी बिजली से कौध-कौध जाती है!
हमें याद उस स्नेह-दीप की बार-बार आती है!
खिलें फूल, पर, मोह न सकती
हमें अपरिचित छटा निराली,
इन आँखों में घूम रही
अब भी मुरझे गुलाब की लाली।
उठा कसक दिल में लहराता है यमुना का पानी,
पलकें जोग रहीं बीते वैभव की एक निशानी,
दिल्ली! तेरे रूप-रंग पर कैसे ह्रदय फंसेगा?
बाट जोहती खंडहर में हम कंगालों की रानी।
(1933 ई0)