भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिल-ए-ख़ूँगश्ता-ए-जफ़ा पे कहीं / मजाज़ लखनवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिल-ए-ख़ूँगश्ता-ए-जफ़ा पे कहीं|
अब करम भी गिराँ न हो जाये|

तेरे बीमार का ख़ुदा हाफ़िज़,
नज़्र-ए-चारागराँ न हो जाये|

इश्क़ क्या क्या न आफ़तें ढाये,
हुस्न गर महर्बाँ न हो जाये|

मैं के आगे ग़मों का कोह-ए-गिराँ,
एक पल में धुआँ न हो जाये|

फिर 'मज़ाज़' इन दिनों ये ख़तरा है,
दिल हलाक-ए-बुताँ न हो जाये|