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दिल की दुनिया / रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
Kavita Kosh से
हम दिल की दुनिया लिए फिरते हैं
मगर यों हाथ में नहीं देते
जो दिल जैसा बने
वो खुले हाथों से ले जाए
चलो वो दिल बादलों में हैं
खूल सको तो छोड़ो आसमां में
गिरने का क्या डर
चलो बस्तियाँ से परे जंगलों में
इस बेईमानों को क्या छुपाएँ
जो दिल यहाँ धड़कता था
वही वहाँ था
बंद भी हो जाए तो उनमें धड़केगा