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दिल के रिश्ते दिमाग़ तक पहुँचे / सुभाष पाठक 'ज़िया'
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दिल के रिश्ते दिमाग़ तक पहुँचे
साफ़ चेहरे भी दाग़ तक पहुँचे
बाद इसके चराग़ लौ देगा,
पहले इक लौ चराग़ तक पहुँचे
जज़्ब रग रग में हो चुका था वो
देर से हम फ़राग़ तक पहुँचे
साथ रहते हैं कैसे ख़ारो गुल
देखना था सो बाग़ तक पहुँचे
मुझको मेरा वजूद हो हासिल
कोई मेरे सुराग़ तक पहुँचे
मय न पहुँची हमारे होंटों तक
बारहा हम अयाग़ तक पहुँचे
होश आ जाये ऐ 'ज़िया' इसको
दिल जो मेरा दिमाग़ तक पहुँचे