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दिल को हिंदुस्तान करूँ / विजय कुमार विद्रोही

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वो युद्ध अनल का शंखनाद तुम शीत पवन के पूत बने
अरि रणभेरी का नाद हुआ तुम धवल शांति के दूत बने
वो दहशतगर्दी का मालिक तुम संविधान की टूट बने
वो सदा शोणितों का प्यासा तुम चिरपतझड़ की ठूँठ बने
   
वो क्या सपूत कहलाऐं जो निजसम्मानों से हार रहे
सम्पूर्ण युद्ध भू पड़ी रही ये थोथी बाज़ी मार रहे
अखबारों के पन्नों पे जलती लुटती लाशें दिखती हैं
प्रतिपल प्रबल प्रतीक्षाऐं निज आवश्यकताऐं लिखती हैं
 
कविता ही थी जिसे बाँचकर हमने कितने नमन किऐ
कविताओं ने जाने कितने मरुथल उपवन चमन किऐ
कविता ने ही जाने कितने सिंहासन के दमन किऐ
कविता ही थी जिसने अंधे पृथ्वीराज को नयन दिऐ
 
रूग्णदीप पोषित कर के रविसार बनाने निकला हूँ
मैं कविता का शीतकुसुम अंगार बनाने निकला हूँ
सदास्वार्थ के बैतालों का संभावित हत्यारा हूँ
अग्निवंश का तप्तदीप लेकिन लगता बेचारा हूँ

बतलाता हूँ भाल लगाकर भारती भू की रज चंदन
उर में धारण करके देखो मिली जुली सी शीत तपन
यही धरा है जहाँ सनातन की बहती अमृत धारा
यही धरा है जहाँ हुआ था रामजनम पावन प्यारा

यही धरा है जहाँ किशन से जग को गीता ज्ञान मिला
यही धरा है जहाँ रणों से न्यायों को सतमान मिला
आज देख लो भारत अपनों ही से बाजी हार रहा
जाने दो झूठी आशाऐं फिर वो कश्मीर उधार रहा

संविधान के नयनों से जब कोई लोहित धार बही
धूलचढ़ी चिंगारी मन में रोती सहमी पड़ी रही
भारत के हंताओं अब फिर कोई मधुरिम आशा दो
या अधिकारों का मान धरो तुम कोई परिभाषा दो

ओजकिरन की गरमाई को दिल में आज उतारो तुम
टूट चुका चोटें खा खाकर अब ये देश निहारो तुम
मुझे बताओ अब मैं कितनी कविताऐं बलिदान करूँ
इक अभिलाषा मैं बस सब के दिल को हिंदुस्तान करूँ