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दिल खिंच रहा है फिर उसी तस्वीर की तरफ़ / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

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दिल खिंच रहा है फिर उसी तस्वीर की तरफ़.
हो आयें चलिए मीर तकी मीर की तरफ़.

कहता है दिल कि एक झलक उसकी देख लूँ,
उठता है हर क़दम रहे-शमशीर की तरफ़.

मैं चख चुका हूँ खाना-तबाही का ज़ायका,
जाऊँगा अब न लज़्ज़ते-तामीर की तरफ़.

इक ख्वाब है कि आंखों में आता है बार-बार,
इक खौफ है कि जाता है ताबीर की तरफ़.

हालात शहरे-दिल से जिसे छीन ले गए
मायल है अब भी दिल उसी जागीर की तरफ़.

जिद थी मुझे कि उससे करूँगा न इल्तिजा,
क्यों देखता मैं कातिबे-तकदीर की तरफ़