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दिल ज़ेरे गुमाँ रहे तो बेहतर / कृश्न कुमार तूर
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दिल ज़ेरे गुमाँ रहे तो बेहतर
यह ख़ून रवाँ रहे तो बेहतर
क्या फूल खिले हैं ख़्वाब रुत के
बरहम यह जहाँ रहे तो बेहतर
पहचान नहीं है दुश्मनों की
बे-क़ुफ़्ल मकाँ रहे तो बेहतर
अब हर्फ़े-जुनूँ न कह सकोगे
अब बन्द ज़बाँ रहे तो बेहतर
ख़ुद अपने ख़िलाफ़ बज़्म में ‘तूर’
इक ताज़ा बयाँ रहे तो बेहतर