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दिल दिल्ली और वही तुम्हारा मेरा दिसंबर / दीपिका केशरी
Kavita Kosh से
ये दिल्ली भी अजीब दिल्लगी करता है
सब कुछ है यहाँ
पर सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है,
शोर के पीछे सन्नाटा है
सारे ताम झाम के पीछे नीली सी तमाम रातें हैं,
रंगीन पानी पे तैरता अकेलापन है
और धुंए में उङता खुशी गम का राग है,
रोज एक हूक उठती है मन में
हाय,ये शहर कितना अकेला है !
यहां के धूप में बहते अवसाद को स्पर्श करो तो
वो अवसाद
बिखर आता है चेहरे पे
और जब उस अवसाद को चूम लो आगे बढ़कर
तो वो भी चूम लेता है आगे बढ़कर,
इस शहर को थपकियों की जरूरत है
इस शहर की जरूरतें बढ़ दि गई है
ये शहर के दिल में अब भी एक बच्चा रहता है
जो बेवजह ही तुम्हारी याद दिलाता है !