दिल पे नाज था मगर वो भी न अपना निकला / रामप्रकाश 'बेखुद' लखनवी
रचनाकार=राम प्रकाश 'बेखुद' संग्रह= }} साँचा:KKCatGazal
दिल पे नाज था मगर वो भी न अपना निकला
अपनी जागीर किसी और का कब्जा निकला
ईद का चाँद इक उम्मीद जगाता निकला
उनसे मिलने का चलो कोई बहाना निकला
जब वक्त पडा शजर पर तो उसे छोड़ गया
कितना एहसान फरामोश परिंदा निकला
कत्ल हर रात का करता है ये सूरज शायद
जब भी निकला है ये तो खूँ में नहाया निकला
मैं ये समझा था बहुत वज्न क़ज़ा का होगा
जिन्दगी तुझसे मगर बोझ ये हल्का निकला
हम तो मजदूर हैं मेहनत से कब इंकार मगर
उतनी कीमत तो मिले जितना पसीना निकला
अब बुझे या न बुझे प्यास तेरी ऐ कातिल
जिस्म में मेरे लहू जितना था उतना निकला
किसको फुर्सत कि जो पूछे हुई किसकी वफात
कौन दरियाफ्त कारे किसका जनाज़ा निकला
ईद का चाँद है बरसात में सूरज है कि तू
कौन निकला है जो सब कहते हैं निकला निकला
हमको क्या राह बताएगा ये ज़माना 'बेखुद'
हमने जिस सिम्त कदम रखा है रास्ता निकला