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दिल बे-ताब-ए-मर्ग-ए-नागहाँ बाक़ी न रह जाए / 'मुशीर' झंझान्वी

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दिल बे-ताब-ए-मर्ग-ए-नागहाँ बाक़ी न रह जाए
मोहब्बत का ये नाज़ुक इम्तिहाँ बाक़ी न रह जाए

सँभल कर फूंक ऐ बर्क़-ए-तपाँ मेरे नशेमन को
कहीं उजलत में शाख़-ए-आशियाँ बाक़ी न रह जाए

मदद-ए-जोश-ए-गिर्या ख़ून-ए-दिल शामिल है अश्‍कों में
कोई इस सिलसिला की दास्ताँ बाक़ी न रह जाए

मोहब्बत की हदें इस आलम-ए-इम्काँ से बाला हैं
किसी की जुस्तुजू में ला-मकाँ बाक़ी न रह जाए

तेरी शान-ए-करम पर कोई हर्फ़ आए माज़-अल्लाह
कोई मय-ख़्वार ऐ पीर-ए-मुगाँ बाक़ी न रह जाए

मुसाफिर इश्‍क़ की मंज़िल सरापा राज़ होती है
कहीं चेहरे पे गर्द-ए-कारवाँ बाक़ी न रह जाए

नशेमन से कफ़स तक सिलसिला हो बर्क़-ए-लर्ज़ां का
ये तर्ज़-ए-जौर भी ऐ आसमाँ बाक़ी न रह जाए

तुम्हारे सामने आँसू भी थम थम कर निकलते हैं
मैं डरता हूँ कहीं ये दास्ताँ बाक़ी न रह जाए

‘मुशीर’ अब हर नज़र में एक लुत्फ़-ए-ख़ास पाता हूँ
कोई इश्‍वा नसीब-ए-दुश्‍मनाँ बाक़ी न रह जाए