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दिल शगुफ़्ता है के फिर कोई ख़ता होने को है / रिंकी सिंह 'साहिबा'

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दिल शगुफ़्ता है के फिर कोई ख़ता होने को है,
जैसे अगले ही क़दम पर हादसा होने को है।

जाने क्या-क्या हो गया है, हो रहा है जाने क्या,
आने वाले वक़्त में अब जाने क्या होने को है।

वो गया तो लौटकर सांसे न आईं जिस्म में,
यूँ लगा के ज़िन्दगी से फ़ासला होने को है।

डाल दी कश्ती भंवर में बस इसी उम्मीद पर,
एक तिनके का मुझे भी आसरा होने को है।

झुक गया है आसमां उड़ने लगी है ये ज़मीं,
लग रहा सावन में अबके कुछ नया होने को है।

जिसने मेरे पांव को ज़ख़्मी किया था एक दिन,
रास्ते का अब वह पत्थर देवता होने को है।

फिर सुहानी वादियों से इश्क़ ने दी है सदा,
लग रहा है रतजगों का सिलसिला होने को है।

ज़िंदगी की उलझने कागज़ पर लिक्खी थीं कभी,
आ रही है ये ख़बर वह फ़लसफ़ा होने को है।

मिल गया वह इक गुहर जो अपने मन की सीप में,
ऐसा लगता है कि ख़ुद से राब्ता होने को है।

छू लिया आकाश ने झुककर जमीं के जिस्म को,
मुख़्तसर-सा एक पल अहद ए वफ़ा होने को है।

हम तो ऐसी फ़िक्र से अब हो चुके हैं बेनियाज़,
होने दो जो 'साहिबा' अच्छा बुरा होने को है।