दिल से उसके जाने कैसा बैर निकला 
जिससे अपनापन मिला वो ग़ैर निकला 
था करम उस पर ख़ुदा का इसलिए ही 
डूबता वो शख़्स कैसा तैर निकला 
मौज-मस्ती में आख़िर खो गया क्यों 
जो बशर करने चमन की सैर निकला 
सभ्यता किस दौर में पहुँची है आख़िर 
बंद बोरी से कटा इक पैर निकला 
वो वफ़ादारी में निकला यूँ  अव्वल 
आँसुओं में धुलके सारा  बैर निकला