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दिवस न माँगो / राहुल शिवाय
Kavita Kosh से
पास तुम्हारे जाने पर यह डर लगता है
वापस लौटूँगा तो कितना खल जाएगा
कहाँ द्वारिका के पथ में
वृंदावन आया
मरुस्थलों के जीवन में
कब सावन आया
चार पलों में सदियों का सुख जी लेगें हम
लेकिन युग जैसा फिर अपना पल जाएगा
पूर्ण चन्द्र की चाह लिए
हम जिये अमावस
हृदय ताप से व्यथित रहा
आँखों का पावस
ऐसे में सोई पीड़ाएँ कौन जगाए
शायद! दूर रहेंगे तो यह टल जाएगा
स्वर्णिम आभाओं के ये
अभिशापित सपने
कितनी देर रहेंगे
इन आँखों के अपने
संध्या के परिदृश्य दृष्टि में तैर रहे हैं
ऐसे में यह दिवस न माँगो, ढल जायेगा