भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिसम्बर / मिथिलेश कुमार राय
Kavita Kosh से
(कल दिसम्बर की बात छिड़ गई तो उसने कहा कि यादों में सब क़ैद हो जाता है, यहाँ तक कि आवाज़ें भी हमेशा के लिए हवा में क़ैद होकर रह जाती हैं ।)
मेरी जनवरी में थोड़ी सी सर्दी है
गेन्दे के कुछ फूल हैं
लाल-लाल दानों वाला
एक मजेदार फल है
मेरी जनवरी में गेहूँ के नन्हें-नन्हें पौधे हैं
सरसों में आ रहे फूल हैं
मेरी जो जनवरी है
उसमें एक बच्चा है
बच्चे के होंठों पर एक निश्छल सी मुस्कान है
दिसम्बर जो अभी-अभी गुज़रा है
उसमें मेरे पीछे एक बियावान था
जिसने मेरे चेहरे पर एक उदासी की परत चढ़ा दी थी
जनवरी में भी वह भय
मेरे चेहरे पर कुछ-कुछ मौजूद है
मेरा दिसम्बर कोई महीना नहीं था
वह कोई नारा था जैसे
जो अब गया तो लगता है
कि ख़तरा टल गया है