दीपशिखा / रामगोपाल 'रुद्र'
आग हूँ, मुझसे न खेलो।
तुम शलभ सुकुमार, कोमल दल तुम्हारे,
वृन्त पर झूला किये, खेला किये मृदु वल्लियों से
कल्पना कि गोद में; मीठी मलय की थपकियों ने
स्नेह से सिंचित किये कुन्तल सँवारे;
दूर ही रहना, न छूना,
जल गया जो आप अपनी आँच में, उस काँच का मैं हूँ नमूना;
आप अपने से छला मैं भगा हूँ, मुझसे न खेलो!
मैं जली, जलती रही, ज्वाला जलाये;
ललकते लौ से लिपटने के लिए कितने सनेही
झूमते आये शलभ, दुर्लभ प्रणय-उपहार लाये!
जल मरे पल में मुझे देते दुआएँ;
और मैं टुक भी न डोली:
वे मेरे बेबोल मेरी एक बोली के लिए, फिर भी न बोली;
जो जलाता ही रहा, वह त्याग हूँ, मुझसे न खेलो।
तुम चले हो आज मुझसे प्यार पाने?
स्नेह से ही जो जली, जिसका प्रणय परिताप बनकर,
भाप की बड़वाग्नि का उत्ताप बनकर जल रहा है;
गरल से आये सुधा उपहार पाने?
प्रेम क परिहास हूँ मैं,
अविचलित ज्यों केतु हूँ अपने गगन का, दर्द का इतिहास हूँ मैं;
दृष्टि ही जिसकी प्रलय, वह नाग हूँ, मुझ से न खेलो!