भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दीप को आफ़ताब कर डाला / अभिषेक कुमार अम्बर
Kavita Kosh से
दीप को आफ़ताब कर डाला
आपने क्या जनाब कर डाला।
अपने लब से गिलास को छूकर
तूने पानी शराब कर डाला।
करके रोशन जहाँ को सूरज ने
आसमां बेनक़ाब कर डाला।
दर्द जब उसने जानना चाहा
मैंने चेहरा किताब कर डाला।
बन के बाँदी तुम्हारे चरणों की
मैंने तुमको नवाब कर डाला।
मैंने उस बेवफ़ा के चक्कर में
ज़िन्दगी को ख़राब कर डाला