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दीप जला दो / महेन्द्र भटनागर

मेरे सूने घर में —
युग-युग का अँधियारा छाया है
जीवन-ज्योति जली थी — सपना है;
तुममें जितना स्नेह समाया है
तब समझूंगा — मेरा अपना है

यदि ऊने अन्तर में तुम दीप जला दो !

कल्पों से यह जीवन क्या ? मरुथल
बना हुआ है जग का ऊष्मा-घर,
एकाकी पथ, फिर उस पर मृग-जल
तब मानूंगा तुममें रस-सागर

यदि मेरे ऊसर-मन को नहला दो !

पल-पल पर आना-जाना रहता
केवल रेतीले तूफ़ानों का,
बनता क्या ? जो है वह भी ढहता ;
समझूंगा मूल्य तुम्हारे गानों का

यदि सूखे सर-से मन को बहला दो !

सम्भव हो न सकेगा जीवित रहना
पल भर भी तन-मन मोम-लता का
है बस मूक प्रहारों को सहना ;
समझूंगा जादू कोमलता का

यदि पाहन-उर के व्रण सहला दो !