दीया जलाओ ! / महेन्द्र भटनागर
यह गुज़रता जा रहा तूफ़ान
अब तो तुम
नये घर में नया दीया जलाओ !
मिट गया है
स्वप्न का वह नीड़
जिसमें चांद-तारे जगमगाते थे,
बीन के वे तार सारे भग्न
जिनमें स्वर किसी दिन झनझनाते थे !
भूल जाऊँ —
इसलिए तुम अब
नये स्वर में नया मधु-गीत गाओ !
यह न पूछो
किस तरह मैं ज़िन्दगी की धार पर
उठता रहा, गिरता रहा,
भावनाएँ धूल पर सोती रहीं
या व्योम में उड़ती रहीं;
पर, जानता हूँ —
घूँट विष की ले चुका कितनी,
असर विष का नहीं जाता
मुझे मालूम है यह भी !
पर, ज़रा तुम
घट-सुधा का तो पिलाओ !
है अभी तो चाह बाक़ी,
और उर के द्वार पर देखो
मचलता ज्वार हँसने का
शुभे! बाक़ी,
अभी तो प्यार के अरमान बाक़ी,
फूल-से मधुमास में खोयी
अनेकों मुग्ध पागल चांद की रातें अभी बाक़ी,
वफ़ा की, बेवफ़ाई की
हज़ारों व्यर्थ की बातें अभी बाक़ी !
तुम तनिक तो मुसकराती
साथ में मेरे चली आओ !