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दुःख नहीं घटता / अनिता मंडा
Kavita Kosh से
बहुत रो लेने के बाद भी
दुःख नहीं घटता
न पुराना पड़ता है
सोते-सोते अचानक
नींद के परखच्चे उड़ते हैं
स्मृति के बारूद
रह रहकर सुलगते हैं
बहुत रो लेने के बाद भी
हृदय की दाह नहीं बुझती
शब्दों के रुमाल सब गीले हो गए
घाव हरे रिस जाते हैं
चोट जब गहरी लगी हो
रूदन हृदय चीरकर निकलता है
सौ सूरज उगकर भी
अँधेरे की थाह नहीं पाते
गले में ठहरी रुलाई
खींच रही है गर्दन की नसें
मृत्यु का दिल
एक कलेजे से नहीं भरता
वो रोज़ ही मेरा
लहू खींच रही है
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