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दुइचित्र / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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बापक मरिते, बुच्चू बाबूक कटै छनि दिन
भिनसरसँ लै दसबजे राति धरि,
टोल समाजक घर परिवारक अपन और सौंसे संसारक
अंट-संट अधलाहक नीकक चिन्तेटा करिते करिते।
बापक मरिते
सौंसे वेदान्तक सार वस्तु श्राद्धक प्रातेसँ बुझय लगलथिन।
जाधरि बाप कमौआ छलथिन
लिखबै छलथिन पढ़बै छलथिन
परह-पहर भरि जीवनमे ओझरायल गीरह
सोझरयबाकेर बुद्धि बैसि सिखबै छलथिन,
सब साधन प्रस्तुत रहै छलनि सदिकाल।
जखन जहिना खयता जहिना पीता,
जाहिसँ हिनकर नीक होइनि,
तीमन-साजन हिनके रूचिएँ खखना बजारसँ लबै छलनि।
धोबियाकेँ नित्त बिना अयने ई धोती नहि फेरैत छला,
भरि टोलक नवतुरिया छौंडाकेँ
छलै उठौना नित्य सिनेमा।
ताहि बुच्चू बाबूक मलिन तन, मलिन बसन,
आ मलिन मनक ई हाल देखि
जे मुग्ध रहै छल-आइ क्षुब्ध अछि।
आबि पिबै छल नित्त चाह जे,
आबि कहै छल-वाह! वाह! जे,
से सब नाक सिकोड़ि रहल अछि।
ई सब सोचि
बताह जकाँ बौअयला ढहनयला बहुतोदिन,
किन्तु एक अवलम्ब घरक, घरभरि लोकक,
तेँ चित्त शान्त कऽ बुच्चू बाबू बापक बरखी
करबालै अयलाह भोरूका गाड़ीसँ
तहिए सँ माय बताहि छथिन
जहिया ई तजलनि गाम अपन।
भरि बरख बितौलनि ओ बूढ़ी
सोमवारी, मंगलवारी मे।
तेँकी ओ गहना बेचि लितथि?
पुतहुक मुँह बिनु गहनेँ देखितथि?
रहि रहि मनमे छनि आबि रहल-
‘‘जनिका बलसँ रानी बनिकऽ
जीवन सौंसे यापन कयलहुँ
छल बात हृदयमे जे तहिया,
की पूरि सकत से?
हे भगवत्ती! तखन करब सन्तोख कोना?
बिनु गहनेँ पुतहुक मुँह देखि नहि सकब
तहि लै जीवी आ की मरी।
बुच्चू बाबू विधुऐल बेचारे जीवन भारेँ दबल
जाँत लदलाहा गदहा जकाँ जीह
हथहथ भरि छला बबैत,
बापक पहिले बरखीतेसरे दिन में छिलनि पबैत।
कोठी ढनढनहे सब घरमे,
लत्ता-कपड़ा सहजहि आजुक युगमे लगलै आगि,
ई सब रहि-रहि मन पडै़त छनि लुत्ती दै छनि दागि,
फुटलो कौड़ी एखन हाथ पर
लिखबे ने कयलनि भगवान।
बिच्चे आङन बाबू दूनू हाथेँ पकड़ि कपार
सोचय लगला-
हमरा लेखेँ शून्य आइ सौंसे संसार।
जीवन-पट पर पछिला चित्र, देखि भेल छनि
मोन विचित्र, कहबै ककरा, धरत हाथ के?
बुच्चुक दूनू नयन-कमलसँ बहि चललनि अछि धार
हृदयमे धैर्य आइ धरिते-धरिते।
ई हाल देखि बूढ़ीक कोँढ़ छनि कापि रहल।
बुचबा चमार रस्ता धयनेँ
एखनहु अछि राग अलापि रहल जे
‘‘कमला मैया सपना देलकै’’।
ओ होइते सब दिन प्रात, खाय भरिपेट
बासिए भात, धरैए टीसन दिसकेर बाट,
मरम्मति अछि करैत जुत्ताक
कमा कऽ नित्त लबै’ए टका पाँच वा सात,
फिकिर ओकरा कथीक रहतैक?
साँझखन ताड़ी कसिकऽ पीबि
राति भरि भेल रहय उन्मत्त
ने गारिक लाज न मारिक डऽर
गामसँ कनिञे दूर फराक
बान्हि लेने अछि बुचबा छोट छीन
बाँसे केर एक टा घर, रहैए ताहीमे सन्तुष्ट,
रहथु क्यो रूष्ट रहथु वा तुष्ट,
धारने छनि ने ककरो रीन न ककरो एक्को पाइ उधार,
मस्त छै बुचबाकेर संसार।
ने बापक बरखी छै करबाक
ने बेटाकेर छैक उपनयन
रहैए सब झंझटसँ चैन।
कहै छनि भगवतीक लग जाय
मन्दिरक द्वारे लग भऽ ठाढ़-
‘सदा पनही बाबू-भैयाक
हमर भागेँ धरि रहौ टुटैत,
जाहिसँ भरि परिवारक लेल
रहय ढौआ धरि खूब जुटैत।