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दुख परबत जैसे / महेंद्र नेह
Kavita Kosh से
परबतिया के माथे
दुख परबत जैसे ।
एक पहर था
धूप सुहानी
उसके घर भी थी,
एक समय था
छाँह लुभानी
उसके सर भी थी,
उसके भी अपने थे
सुख अमरत जैसे ।
उसके जंगल
उसकी धरती
सब नीलाम हुए,
ठेकेदारों
नेताओं के
सारे नाम हुए,
कुछ भी बचा न पाए
प्रभु समरथ जैसे ।
कभी जाति के
कभी धर्म के
मुखिया ने लूटा,
कभी मूल पर
कभी ब्याज पर
बनिया ने लूटा,
उस पर झपटी, टूटी
हर आफ़त जैसे ।