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दुनिया के कुछ न कुछ तो तलब-गार से रहे / 'सुहैल' अहमद ज़ैदी

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दुनिया के कुछ न कुछ तो तलब-गार से रहे
हम अपनी ही नज़र में ख़ता-कार से रहे

इक मरहला था ख़त्म हुआ दश्त-ए-ख़्वाब का
फिर उम्र भर जहाँ रहे बेज़ार से रहे

जुरअत किसी ने वादी-ए-वहशत की फिर न की
हम ख़स्ता-हाल आहनी दीवार से रहे

इक अक्स है जो साथ नहीं छोड़ता कभी
हम ता-हयात आईना-बरदार से रहे

हर सुब्ह अपने घर में उसी वक़्त जागना
आज़ाद लोग भी तो गिरिफ़्तार से रहे

कार-ए-अज़ीम कब कोई क़ुदरत में था ‘सुहैल’
हम बस उफ़क़ पे सुब्ह के आसार से रहे