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दुनिया के परपंचों में हम / ललित किशोरी

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दुनिया के परपंचों में हम मजा नहीं कछु पाया जी।
भाई-बंधु, पिता-माता पति सबसों चित अकुलाया जी॥

छोड़-छाड़ घर, गाँव-नाँव कुल, यही पंथ मन भाया जी।
ललितकिसोरी आनँदघन सों अब हठि नेह लगाया जी॥

क्या करना है संपति-संतति, मिथ्या सब जग माया है।
शाल-दुशाले, हीरा-मोतीमें मन क्यों भरमाया है॥

माता-पिता पती-बंधु सब गोरखधंध बनाया है।
ललितकिसोरी आनँदघन हरि हिरदै कमल बसाया है॥

बन-बन फिरना बिहतर हमको रतन भवन नहिं भावै है।
लतातरे पड़ रहनेमें सुख नाहिन सेज सुहावै है॥

सोना कर धरि सीस भला अति तकिया ख्याल न आवै है।
ललितकिसोरी नाम हरीका जपि-जपि मन सचुपावै है॥

तजि दीनीं जब दुनिया-दौलत फिर कोईके घर जाना क्या।
कंद मूल-फल पाय रहैं अब खट्टा-मीठा खाना क्या॥

छिनमें साही बकसैं हमको मोतीमाल खजाना क्या।
ललितकिसोरी रुप हमारा जानै नाँ तहँ आना क्या॥

अष्टकसिद्धि नवनिद्धि हमारी मुट्ठीमें हरदम रहतीं।
नहीं जवाहिर, सोना-चाँदी, त्रिभुवनकी संपति चहतीं॥

भावै ना दुनियाकी बातैं दिलवरकी चरचा सहती।
ललितकिसोरी पार लगावैं मायाकी सरिता बहती॥

गौर-स्याम बदनारबिंदपर जिसको बीर मचलते देखा।
नैन बान, मुसक्यान संग फँस फिर नहिं नेक सँभलते देखा॥

ललितकिसोरी जुगुल इश्कुमें बहुतोंका घर घलते देखा।
डूबा प्रेमसिंधुका कोई हमने नहीं उछलते देखा॥

देखौ री, यह नंदका छोरा बरछी मारे जाता है।
बरछी-सी तिरछी चितवनकी पैनी छुरी चलाता है॥

हमको घायल देख बेदरदी मंद मंद मुसकाता है।
ललितकिसोरी जखम जिगरपर नौनपुरी बुरकाता है॥